स्वयं के धर्म की चिंता
यह कहानी हमें अपने धर्म का ध्यान रखना सिखाती है और एक सबक है जो हमें इससे सीखना चाहिए। अगर हम अपनी गलतियों से सीखते हैं तो हम अपने रिश्तों को ठीक कर सकते हैं।
यह लिखते हुए मुझे चिंता हो रही है। मुझे पता है कि मुझे चिंता क्यों होती है, लेकिन आज कुछ लोगों की तरह मुझे भी इसका सामना करने में डर लगता है। हिंदी में एक कहानी पढ़ने के बाद आप समझ जाएंगे कि क्यों।
आदमी फिर उसके पीछे गया | उसने बिच्छु को पकड़ा | लेकिन बिच्छू ने फिर से उसे काट लिया | यह बार-बार होता रहा | यह पूरी घटना दूर बैठा एक आदमी देख रहा था | वो उस आदमी के पास आया और बोला – अरे भाई ! वह बिच्छू तुम्हे बार- बार काट रहा हैं | तुम उसे बचाना चाहते हो, वो तुम्हे ही डंक मार रहा हैं | तुम उसे जाने क्यूँ नहीं देते ? मर रहा हैं अपनी मौत, तुम क्यूँ अपना खून बहा रहे हो ?
तब उस आदमी ने उत्तर दिया – भाई ! डंक मरना तो बिच्छू की प्रकृति हैं | वह वही कर रहा हैं लेकिन मैं एक मनुष्य हूँ, और मेरा धर्म हैं दुसरो की सेवा करना और मुसीबत में उनका साथ देना | अतः बिच्छू अपना धर्म निभा रहा हैं और मैं मेरा |
शिक्षा :-
सभी को अपने धर्म और कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिये | दूसरा चाहे जो कर रहा हो, आपके धर्म में उसकी करनी से कोई असर नहीं होना चाहिये | हर व्यक्ति का अपना- अपना धर्म हैं जो नियति और परिस्थती ने तय किया हैं जिसका निर्वाह उसे करना हैं और निर्वाह करना चाहिये | फल की चाह से कर्म करना व्यर्थ हैं क्यूंकि केवल आपके कर्मो का प्रभाव आप पर नहीं पड़ता | संसार के सभी लोगो के कर्मो का प्रभाव एक दुसरे पर पड़ता हैं | आपके हाथ में केवल आपका कर्म और धर्म हैं | आपको केवल उसकी चिंता करना चाहिये |
अगर सभी एक दुसरे को देख कर अपने धर्म का निर्वाह करेंगे तो जहाँ धूर्त ज्यादा हैं वहाँ धूर्त बढ़ेंगे |
शायद आज के समय में यही हो रहा हैं | तभी रिश्ते नाते किसी से सँभलते ही नहीं क्यूंकि सबका अपना अहम् हैं | कोई आगे बढ़कर रिश्तों का निर्वाह करना ही नहीं चाहता | जिसका फल यह हैं कि परिवार बस दो से चार लोगो के बीच सिमट गया हैं और यही हाल मित्रता का भी हो गया हैं |
लोग अपने कर्मो की चिंता ना करते हुए , दूसरों के कर्मो की चिंता में घुले जा रहे हैं और स्वयं पर व्यर्थ का भार बढ़ा रहे हैं | अगर हर व्यक्ति केवल अपने धर्म और कर्म की चिंता करे, तो सारी परेशानी ही ख़त्म हो जाए | लेकिन आज मानव समाज की यह प्रकृति रही ही नहीं हैं | सभी खुद को महान बनाते हैं और दुसरो में कमी निकालते हैं और खुद में छिपी बुराई उन्हें नजर ही नहीं आती | अगर अच्छे बुरे के तराजू में इंसान निष्पक्ष होकर पहले खुद को तौले , तो आधी दिक्कत तो उसी वक्त खत्म हो जाए लेकिन आज का इंसान डरपोक हैं | उसमे खुद की बुराई देखने और उसे मानने का साहस ही नहीं हैं इसलिए आज रिश्ते चवन्नी के भाव हो गये हैं | एक नाजुक धागे की तरह टूट-टूट कर गाँठ में बंध रहे है |और बस दिखावे के हो गये हैं |
स्वयं के धर्म की चिंता कर यह आज के वक्त के लोगो के गुणों को बता रही हैं कैसे व्यक्ति का धर्म दुसरो के कर्म के हिसाब से बदल जाता हैं |और एक दुसरे को देख सभी कर्तव्य को छोड़ देते हैं |
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